Katha Star के प्रिय पाठको, आज हम आपको Rajendra Das Ji Maharaj Biography (राजेंद्र दास जी जीवन परिचय) के बारे में संपूर्ण जानकारी से अवगत कराने जा रहे हैं।
वैसे तो आपने कथावाचकों को या फिर पीठाधीश्वरों के बारे में सुना होगा, जो अक्सर शास्त्र की लिखी बातें आपको सरल भाषा में बताने का प्रयास करते हैं।
लेकिन राजेन्द्र दास जी महाराज (Rajendra Das Ji Maharaj History) एक ऐसे विलक्षण संत हैं,
जो कथा के साथ-साथ पृथ्वी की जननी और मनुष्य प्राणी की पोषणकर्ता गौमाता की सेवा और रक्षा करने के विषय में समाज को बहुत प्रेरित करते हैं।
जिससे आने वाली नयी पीढ़ी को गौसेवा में जुड़ने का अवसर मिल सकेगा।
महाराज जी (राजेन्द्र दास जी) के ही प्रयास से आज भारत में ऐसी अनेक गौशालाओं का संचालन हो रहा है, जिसमें गौवंश का संरक्षण व संवर्धन हो रहा है। जो बहुत ही प्रसंशनीय है।
इस बात को महान सिद्ध संत पूज्यनीय श्री देवरहा बाबा जी ने भी तीर्थराज प्रयाग में महाकुंभ के अवसर पर सन् 1889 में विश्व हिन्दु परिषद के मंच से कहा था कि-
‘दिव्य भूमि भारत की समृद्धि के लिए गौसेवा और गौरक्षा अतिआवश्यक है। इसके बिना समृद्ध भारत की कल्पना नहीं की जा सकती है।’
ऐसी ही दिव्य विभूतियों द्वारा दिये गये संदेश को अपना कर्म मानते हुये राजेंद्र दास जी बड़े ही भाव और लगन से इस कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं।
ऐसा महान कार्य करने वाले राजेन्द्र दास जी महाराज के जीवन से संबंधित कुछ ऐसी रोचक जानकारियॉ हैं, जिन्हें आप पढ़कर अपने जीवन में मूलभूत बदलाव ला सकते हैं।
साथ ही इस लेख के माध्यम से अपने ज्ञान को बढ़ा सकते हैं।
तो इसी तारतम्य में आगे की यात्रा शुरु करते हैं-
राजेंद्र दास जी का जन्म स्थान (Rajendra Das Ji Maharaj Birth Place) :-
राजेन्द्र दास जी का जन्म मध्य प्रदेश राज्य के टीकमगढ़ जिले में स्थित ‘अचर्रा’ नामक गॉव में हुआ था। प्राचीन समय से ही अचर्रा विद्वानों, आचार्यों और वैदिक ब्राम्हणों का घर रहा है।
स्वामी श्री राजेन्द्र जी का जन्म भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की पंचमी अर्थात् ऋषि पंचमी के दिन हुआ था।
राजेन्द्र दास जी के पिता का नाम पं श्री रामस्वरूप जी पाण्डेय है। जो बहुत ही गुणी, पवित्र, धार्मिक व संत भक्त हैं।
जो श्री भक्तमाल के साथ श्री राम व कृष्ण कथा के संस्कृत शिक्षण और सत्संंग प्रवचन किया करते थे।
राजेन्द्र दास जी की पूज्य माताजी का नाम श्रीमती बृजलता देवी है।
राजेंद्र जी के माता-पिता ने वृन्दावन के रसिक संत आदरणीय अनंत श्री विभूषित श्री गणेश दास जी महाराज से वैष्णव दीक्षा प्राप्त की।
राजेन्द्र दास जी की शिक्षा:-
राजेन्द्र दास जी (Rajendra Das Ji Maharaj) बचपन में ही श्रीधाम वृन्दावन आ गये और ईश्वर की कृपा से उन्हें सद्गुरुदेव श्री भक्तमाली जी महाराज का सानिध्य प्राप्त हुआ।
उसी समय श्री भक्तमाली जी महाराज ने सुदामा कुटी में निवास करते हुये श्री भक्तमाल पर अपना महान भाष्य लिखा था।
वहॉ उन्होंने अपने नये शिष्य युवा राजेन्द्र को अपने सानिध्य में वैष्णव परंपरा में शामिल किया और औपचारिक रूप से राजेन्द्र की संस्कृत शास्त्र शिक्षा का प्रारंभ हुआ।
और इस नये दीक्षित शिष्य का नाम रखा गया राजेन्द्र दास।
सुसंस्कृत वैष्णव छात्र राजेन्द्र दास ने संस्कृत व्याकरण, विशिष्टा द्वैत, वेदांत और साहित्य का क्रमिक अध्ययन किया और मास्टर डिग्री प्राप्त की।
राजेन्द्र दास ने 08 जनवरी 2018 को, जगद्गुरु रामानंदाचार्य की जयंती पर, श्री तुलसीपीठाधीश्वर दिव्यांग विश्वविद्धालय से माननीय राष्ट्रपति महोदय के हाथों से डी. लिट (विद्या वाचस्पति) की मानद उपाधि प्राप्त की।
राजेन्द्र दास जी के गुरु:–
राजेंद्र दास जी (Rajendra Das Ji Maharaj) के गुरु पूज्य गुरुदेव अनंत श्री संपन्न श्री गणेश दास जी भक्तमाली जी महाराज हैं।
जिनका जन्म नेमीषारण्य की पवित्र धरा पर सीतापुर जनपद के अंतर्गत गोमती गंगा के तट पर बसे कुरसी गॉव में काश्यप गोत्रीय काण्यकुब्य विप्र कुल में
पंडित श्री लक्ष्मण प्रसाद त्रिपाठी एवं श्रीमती कैलाशी देवी के गृह में सन् 1918 में हुआ। जिनका नामकरण पंडित श्री गया प्रसाद त्रिपाठी के रूप में किया गया।
राजेन्द्र दास जी की आध्यात्मिक यात्रा:-
महाराज जी (Rajendra Das Ji Maharaj) बचपन से ही बहुत कुशाग्र और विलक्षण प्रतिभा के धनी थे, लेकिन बचपन में वह स्कूल जाने से मना कर देते थे।
उनके इस स्वभाव से उनके माता-पिता बहुत चिंतित हुये और विचार करने लगे कि बेटा राजेन्द्र को कैसे शिक्षा दिलायी जाये,
लेकिन राजेंद्र दास जी महाराज को बचपन से ही आध्यात्म के प्रति गहरी रुचि थी
जिसको उनके माता-पिता पहचान गये और वृन्दावन शिक्षा के लिए भेज दिया।
आगे के काल में राजेन्द्र दास को महान सिद्ध संत योगीराज श्री देवदास जी महाराज, पूज्यपाद स्वामी श्री शरणानंद जी महाराज,
स्वामी श्री करपात्री जी महाराज जैसी महान विभूतियों का सानिध्य प्राप्त होता रहा और उनका आशीर्वाद मिलता रहा।
यहीं से महाराज जी की आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत होती है और फिर एक दिन महाराज जी संत से मूलकपीठाधीश्वर बन जाते हैं।
राजेन्द्र दास जी कैसे बने मलूकपीठाधीश्वर:-
वर्ष 2000 की घटना है। पूज्य बड़े महाराज जी (बाबा सरकार) ने भक्तमाल पर भक्तबल्लभा टिप्पणी सबसे पहले लिखी थी,
उसकी एक प्रति राजेन्द्र दास जी (Rajendra Das Ji Maharaj) को उन्होंने बड़े ही स्नेहपूर्वक अपने हाथों से दी।
राजेन्द्र दास जी बोले कि महाराज जी इस पर आप अपना कुछ आर्शीवाद लिख दीजिए, तो महाराज जी ने लिखा
‘श्रीहरि शरणम् श्री मलूकपीठाधीश्वराय राजेन्द्रदासाय स्वस्ति।’
तब राजेन्द्र दास जी बोले कि महाराज जी मैं मलूकपीठाधीश्वर नहीं हॅू, मैं तो अपना सब कुछ छोड़कर मलूक पीठ में आ गया हॅू। मुझे किसी ने मलूक पीठाधीश्वर थोड़ी ही बनाया है और ना ही मैं महंत हॅू।
तब महाराज जी बोले कि पंडित जी लिखकर काटने की परम्परा हमारे यहॉ नहीं है। अब हमने रामजी की प्रेरणा से लिख दिया है तो काटेंगे नहीं।
इसके बारे में किसी से कहा भी नहीं गया, परंतु उस दिन के बाद से लोग अपने आप ही राजेंद्र दास जी को मलूकपीठाधीश्वर कहने लग गये।
कथाओं में कहने लगे, बैनरों में लिखा जाने लगा, कार्ड में लिखा जाने लगा।
उसके कुछ दिन बाद राजेन्द्र दास जी (Rajendra Das Ji Maharaj) नागाबाबा ठाकुर बाड़ी, पटना, बिहार में कथा करने गये, जहॉ उनकी भेंट पूज्य बक्सर वाले मामाजी से हो गयी।
मामाजी ने राजेन्द्र दास जी से कहा कि भैया एक बात का बुरा तो नहीं मानेंगे, तो पूछू। महाराज जी बोले हॉ हॉ आदेश कीजिए।
वे बोले कि ये जो मलूक दास दी का द्वारा है, उसका पीठाधीश्वर तो आपको किसी ने बनाया नहीं, कुछ लोगों ने मुझसे इस विषय पर आपत्ति की है
इसलिए मेरे विचार से आप मलूकपीठाधीश्वर न लिखें, इसमें थोड़ा अभिमान भी होता है।
इसलिए इसमें थोड़ा सुधार करके मलूकपीठाश्रित लिखा करो अर्थात् मलूक पीठ के आश्रित हैं, अधीश्वर थोड़े ही हैं।
तब राजेन्द्र दास जी बोले कि जैसी आपकी आज्ञा।
तब मामाजी ने फिर पूछा आप किसकी प्रेरणा से ऐसा लिखते हैं?
तब राजेन्द्र दास जी (Rajendra Das Ji Maharaj) ने भक्तबल्लभा टिप्पणी वाली पूरी घटना सुना दी और कहा कि पूज्य बड़े महाराज जी ने यह उपाधि दी है,
अन्यथा मैंने तो किसी ने कहा भी नहीं है और ना ही मैं अपने मन से मलूकपीठाधीश्वर लिखता हॅू।
इतना सुनते ही मामाजी ने अपने दोनों कान पकड़ लिये और बोले कि पूज्य बाबा सरकार ने अपनी कलम से लिख दिया,
तब तो कोई बनावे या न बनावे आप हो मलूकपीठाधीश्वर और अब बदलने की जरूरत नहीं है, यही ठीक है।
यदि बाबा सरकार ने अपने हाथ से लिखा दिया, तब बदलने की जरुरत नहीं है। मामाजी यह कहकर बड़े प्रसन्न हुये।
राजेन्द्र दास जी ‘जगतगुरु द्वाराचार्य’ कैसे बनें:-
वर्ष 2006 के पूर्व तक पूज्य बड़े महाराज जी शरीर में विराजमान रहे और साल के अंत में शरीर का त्याग करके भगवतधाम को चले गये।
वर्ष 2007 में मलूकपीठ का नया मंदिर बनकर तैयार हो गया।
तब राजेन्द्र दास जी (Rajendra Das Ji Maharaj) ने विचार किया कि इसके उद्घाटना उत्सव में भारतवर्ष के सभी सम्प्रदायों के संतों को आमंत्रित किया जाना चाहिए
जिससे सभी संत महानुभाव मलूक पीठ का दर्शन कर सकें।
इसलिए मलूक दास जी की जयंती के अवसर पर राजेंद्र दास जी के आमंत्रण पर संपूर्ण भारतवर्ष के संन्यासी-उदासी, अनी-अखाड़े के प्रमुख श्रीमहंत,
चारों सम्प्रदायों के प्रमुख, जगतगुरु, प्रमुख पीठों के शंकराचार्य और अन्य संत महात्मा पधारे।
सभी का यथोचित स्वागत वंदन अभिनंदन किया गया।
मलूक दास जी की जयंती की पूर्व संध्या पर जब सभी संत विश्रामस्थल पर एकत्रित होकर चर्चा कर रहे थे, तभी सभी ने एकमत होकर राजेन्द्र दास जी को वहॉ बुलवाया
और कहा कि हमारे समाज के सभी प्रमुख यहॉ उपस्थित हैं, जितने पीठों और अखाड़ों के प्रमुख कुंभ में एकत्रित होते हैं, वे सभी आज यहॉ हैं
और हम सब ने मिलकर यह निर्णय लिया है कि कल मलूक जयंती के शुभ अवसर पर हम ‘जगतगुरु द्वाराचार्य’ पद पर आपका अभिषेक करेंगे।
तब राजेन्द्र जी ने हाथ जोड़कर समस्त संत परिकर से प्रार्थना कि महाराज जी आप ऐसा न करें, क्योंकि यदि मेरी ऐसी कोई योजना होती तो मैं स्वयं आपसे निवेदन कर लेता या कार्ड में छपता।
यहॉ तो मलूक दास जी की जयंती पर ठाकुर जी की प्राण प्रतिष्ठा में आप सभी को आमंत्रित किया गया है, मुझे ऐसा ही रहने दीजिए। दास आपकी इस आज्ञा का पालन नहीं कर पायेगा।
इतना सुनते ही सभी संत नाराज हो गये और बोले कि अब हम यहॉ एक क्षण भी नहीं रुकेंगे, आसन बांधो और चलो सभी,
अब हम कुछ विदाई भी नहीं लेंगे। आप समाज की बात नहीं मानते इसलिए हम जा रहे हैं।
अरे राजेन्द्र दास जी महाराज, यह पीठ तो विलुप्त हो गया था। आपने परिश्रम और पुरुषार्थ करके इसको पुन: खड़ा किया है
इसलिए हम सभी संत आपको यह पद देना चाहते हैं और यदि आप नहीं मानेंगे तो हम सभी नाराज होकर चले जायेंगे।
तब मलूकपीठाधीश्वर राजेन्द्र दास जी बोले कि महाराज जी वृन्दावन में भी तो चतुर्सम्प्रदाय हैं, इसलिए वृन्दावन के संत नाराज हो जायेंगे कि हमको बताया नहीं।
और अब रात हो गयी, कल सुबह से कार्यक्रम शुरु हो जायेगा तो अब बताने का समय भी तो नहीं रहा।
तब संत परिकर बोला कि आप इसकी चिंता मत करो, हम सब यहॉ बैठे हैं ना और इतना कहकर वृन्दावन के संत समाज के अध्यक्षों को तुरंत ही बुला लिया गया
और उनसे पूछा गया कि हम कल इस प्रकार का कार्यक्रम करने वाले हैं, क्या आपको आपत्ति है?
तो वृन्दावन के संत समाज के अध्यक्षों ने कहा कि अरे महाराज हमें क्या आपत्ति।
हमारे बड़े और पूज्यनीय तथा मार्गदर्शक तो आप ही लोग हैं, जैसा आप कहेंगे हमें स्वीकार है।
और इस प्रकार वैशाख कृष्ण पंचमी को मलूक जयंती के दिन राजेन्द्र दास जी का ‘जगद्गुरु द्वाराचार्य’ के पद पर अभिषेक किया गया
और राजेन्द्र दास जी बन गये ‘जगद्गुरु द्वाराचार्य श्री मलूक पीठाधीश्वर स्वामी श्री राजेन्द्र दास देवाचार्य जी महाराज’
अभिषेक के दौरान ही राजेन्द्र दास जी के मन में यह विचार आया कि आज जो घटना वर्ष 2007 में उनके साथ हो रही है इसे पूज्य बड़े महाराज जी (बाबा सरकार) ने वर्ष 2000 में ही देख लिया था।
मलूकपीठाधीश्वर श्री राजेन्द्र दास जी की विशेषता:-
राजेंद्र दास देवाचार्य जी महाराज (Rajendra Das Ji Maharaj) के ललाट का लगभग अस्सी प्रतिशत हिस्सा चंदन में चला जाता है। रोज विधिवत् केशर चंदन लगाते हैं।
उनके सिर पर बनी जटाओं को देखकर लगता है कि ये तपस्या की साक्षात मूर्ति हैं। जटा रखना और मुंडन कराना ये दोनों तपस्या के स्वरूप हैं।
महाराज जी आज भी शास्त्र अध्ययन करते हैं और शास्त्र अध्ययन निष्ठा के बिना और गुरु भक्ति के बिना संभव नहीं है।
जब गुरु में निष्ठा होगी तब ही शास्त्र में निष्ठा होगी और शास्त्र में निष्ठा होने पर ही शास्त्र का अक्षर-अक्षर मन में उतर जाता है।
महाराज जी किसी भी गाय का दूध नहीं पीते हैं, वे केवल वेदलक्षणा देशी गाय का ही दूध पीते हैं।
महाराज जी पूरी तरह से शास्त्रीय जीवन जीते हैं।
जब भगवान ने महराज जी को जूठा केला खिला दिया:-
महाराज जी (Rajendra Das Ji Maharaj) को भगवत कृपा से एवं परम समर्थ श्री सद्गुरुदेव भगवान के चरणों की अहेतु की कृपा से अत्यंत बाल्यकाल में ही रासबिहारी की कृपा का प्रत्यक्ष अनुभव हो गया था।
गहवर वन में एक निम्बार्की महात्मा थे श्रृंगारी जी। वे चिकसौली के बृजवासी विप्र बालकों का श्रृंगार करके एक को बिहारी जी और एक बालिका को श्री जी के रूप में सजाकर उनकी आरती करते थे,
उनको भोग लगाते थे, उनको देखकर पद गाते और वे छोटे-छोटे बालक बालिका जो भी बातें करते, उछलकर खेलने लग जाते, जो भी क्रीडा करते, उसका वे आनंद लेते थे
और आसपास के लोग व संत आकर उनकी पूजा करते, उन्हे भोग लगाते, आरती करते और चरणामृत प्रसाद लेते और उनकी लीलाओं का आनंद लेते।
श्री श्रृंगारी बाबा अपनी कथा में अक्सर कहा करते थे कि रासबिहारी साक्षात श्री कृष्ण हैं।
उन्हीं श्रृंगारी बाबा की सेवा में कुछ दिन रहने का अवसर श्री राजेन्द्र दास जी को मिला था। श्रृंगारी बाबा छोटे बालकों की लीला देखकर बड़े प्रसन्न होवे और चरणामृत लेवें,
लेकिन राजेंद्र दास जी को मन में बड़ा संकोच लगता था कि मैं ब्राम्हण हॅू, नियम से पूजा पाठ करता हॅू। ये बाहर से ठाकुरजी बन गये हैं तो सच में थोड़े ही ठाकुर जी हो गये हैं,
ये जनेउ भी नहीं पहनते हैं, पता नहीं इनके आचार विचार कैसे होंगे। इसलिए इनका जूठा खाना इनका चरणामृत ले लेना ठीक नहीं है।
इसलिए लीला के बाद जब चरणामृत बटने लगता, तब महाराज जी किनारे होने का प्रयास करते,
क्योंकि यदि लेने से मना करेंगे तो मंदिर के लोग पता नहीं क्या-क्या बातें बनाते,
इसलिए चुपके से पीछे हटने का प्रयास करते ताकि उन्हें कोई चरणामृत दे ही ना।
एक दिन की बात है, हर दिन की तरह उस दिन भी श्री राजेन्द्र दास जी ने अपनी दैनिक दिनचर्या के अनुसार संपूर्ण कार्य समाप्त किये और रात में जब सो रहे थे तो एक सपना आया।
जिसमें उन्होंने देखा कि रासमंडल में वे ही बृजवासी बालक बालिका राधा कृष्ण के रूप में लीला कर रहे हैं और आश्रम के बाहर राजेन्द्र दास जी अपनी संध्या वंदना कर रहे हैं
तभी वह कृष्ण स्वरूप बालक क्रीडा करते हुये दौडकर गया और आश्रम के अंदर बैठे श्रृंगारी बाबा की गोद में जाकर बैठ गया और पीछे से नन्हीं सी श्रीजी आयी और वे भी बाबा की गोद में जाकर बैठ गयी।
जबकि उन बच्चों से किसी ने ऐसा करने के लिए कहा नहीं था, वह ठाकुर जी की लीला ही थी कि सब अपने आप हो रहा था।
बाबा ने जब देखा कि श्रीजी और ठाकुरजी उनकी गोद में आकर बैठे हैं तो बाबा भाव विभोर होकर रोने लगे और बार-बार उनका दुलार करने लगे।
और लोग जो ये लीला देख रहे थे, बाबा से बोले कि बाबा ठाकुरजी और श्रीजी को भोग लगाओ।
तब बाबा ने देखा कि किस चीज का भोग लगाया जाये तो कुटिया में केले रखे थे उसी का भोग नन्हें बालकों को लगाया गया।
तभी अचानक ठाकुरजी के मन में क्या आया कि बाबा की गोद से उछलकर भागे और जहॉ राजेन्द्र दास जी संध्या वंदन कर रहे थे, उनके पास वह नन्हा बालक आया और बोला
ये बाबा काहे को माला फेर रहो है, ले नेक सो केरा खा ले, केरा खा ले। तब महाराज जी ने हाथ से इशारा किया मैं अभी जप कर रहा हॅू।
बालक फिर बोला अरे कछु बोल तो सही, अपनो मोहड़ो खोल, ले केरा खा।
तब श्रीजी भी आ गयी और ठाकुरजी से बोली- ये, बाबा को परेशान मती करो, भजन कर रहो है, करन देयो, काय खो भजन में विक्षेप करत हो।
तो श्री जी से ठाकुर जी बोले- अरे माला पीछे फेर लेगो, पै ले केरा खा ले।
और इतना कहते ही बिना किसी से पूछे बिना किसी से कहे जबरदस्ती ठाकुर जी ने अपना खाया हुआ आधा जूठा केला श्री राजेन्द्र दास जी के मुख में दे दिया।
यह पहला अवसर था जब महाराज जी (Rajendra Das Ji Maharaj) ने उस लीला का प्रसाद ग्रहण किया हो।
यह देखकर नन्हीं सी श्रीजी भी खूब खिलखिलाकर हंसी और ऐसी ही लीला करते हुये दोनों बच्चे वहां से चले गये।
यह लीला होने के बाद महाराज जी तो भूल ही गये थे कि वो क्या जप कर रहे थे और अभी कितना जप बाकी था। बस सुधबुध भूलकर बैठे ही रह गये और आनंदित होते रहे।
वे मन ही मन में सोचने लगे कि आज सुबह की कथा में ही महाराज जी ने कहा था कि ये साक्षात ठाकुरजी और श्रीजी होते हैं ।
उनका मन ग्लानि से भर गया कि मैं तो इस कृपा के योग्य ही नहीं था, पर आज जीव पर कृपा हो गयी।
इस बात की ग्लानि जरा भी नहीं हुयी कि जूठा खिला दिया, उसमें तो उन्हें बड़ा आनंद आया। और इतने में महाराज जी ऑख खुल गयी और स्वपन टूट गया।
सुबह महाराज जी ने निश्चय किया कि वे अपना सपना बाबा को सुनायेंगे, लेकिन मंदिर में कोई न कोई भक्त आ जाता तो उन्हें एकांत वातावरण ही नहीं मिला
कि अपना सपना सुना सकें और अवसर की प्रतिक्षा में ही पूरा दिन बीत गया।
सुबह से शाम आ गयी तो शाम के समय अपनी नित्य प्रति की तरह संध्या वंदन करने लगे और नित्य प्रति की तरह लीला भी होने लगी, लेकिन
आश्चर्य की बात कि जो लीला महाराज जी ने रात को स्वपन में देखी थी आज वैसी की वैसी पूरी लीला उनके साथ साक्षात हो गयी।
कि दोनों बच्चे दौडकर बाबा की गोद में बैठे, केले का भोग लगा। ठाकुर जी दौडकर आये श्री जी भी आयी और ठाकुरजी ने अपने अधरामृत का केला महाराज जी के मुख में दे दिया।
महाराज जी ने अपना सपना किसी को भी नहीं सुनाया था। इसके बावजूद पूरी लीला वैसी की वैसी ज्यों की त्यों ही संपन्न हो गयी।
यह प्रत्यक्ष लीला देखकर महाराज जी का मन अत्यंत भाव से भर गया और वे खूब जोर जोर से रोने लगे और रोते हुये पूरी बात बाबा को बतायी।
बाबा ने कहा कि बेटा इन बालकों में साक्षात युगल सरकार का दर्शन करके न जाने कितने जीव सिद्ध हो गये इसलिए ये बालक बालिका का खेल मत समझो, ये साक्षात ठाकुरजी श्रीजी हैं।
महाराज जी कहते हैं कि इस प्रकार की घटनायें प्रकाश योग्य नहीं होती हैं, ये गुप्त रखी जाने वाली घटनायें हैं,
लेकिन मैं आप सबको इसलिए बता रहा हॅू ताकि श्रीजी ठाकुरजी में आपका विश्वास प्रबल हो।
भगवत प्राप्ति का सरलतम साधन है भगवान की लीला।
Katha Star के प्रिय पाठको, आपने लेख के प्रारंभ में ही राजेन्द्र दास जी के गुरुजी का नाम जाना,
और यह भी जाना कि राजेंद्र दास जी मूलकपीठाधीश्वर कैसे बने।
लेकिन महाराज जी जिस मलूक पीठ के अधीश्वर हैं, वह मलूक पीठ किसकी है? और वे मलूक दास कौन हैं?
तो आइये जानते हैं-
कवि मलूकदास का जीवन परिचय:-
मध्य भारत में तीर्थराज प्रयाग की पावनधरा पर कान्यकुब्ज विप्र कुल में पंडित श्री पुण्यसदन बाजपेयी के गृह में श्री रामजी ही श्री रामानंदाचार्य के रूप में प्रकट हुये।
उन्हीं श्री रामानंदाचार्य की पवित्र परंपरा में उनके शिष्य श्री अनंतानंदाचार्य जी हुये।
श्री अनंतानंदाचार्य जी के शिष्य श्री कृष्णदास पैहारी जी महाराज हुये। जिन्होंने जयपुर में गलता पीठ की स्थापना की।
श्री कृष्णदास पैहारी जी के शिष्य श्री स्वामी अग्रदेवाचार्य जी महाराज हुये।
स्वामी श्री अग्रदेवाचार्य जी महाराज के शिष्य श्री नाभादास जी ने सोलहवी सदी के रामचरितमानस की रचनाकाल में ही श्री भक्तमाल की रचना करके संपूर्ण सनातन धर्म के आचार्यों,
भक्तों व संतों को एक ग्रंथ में प्रतिष्ठित करके सनातन धर्म को एक मंच पर प्रस्तुत करने का एक महनीय कार्य किया।
उसी परंपरा में श्री अग्रदेवाचार्य जी महाराज के प्रशिष्य श्री देवमुरारी देवाचार्य जी हुये, जिन्होंने तीर्थराज प्रयाग में दारागंज में ‘तुलसीदास जी का बड़ा अखाड़ा’ की स्थापना की।
उन्हीं के शिष्य श्री मलूकदास जी महाराज हुये।
मलूकदास जी का जन्म तीर्थराज प्रयाग के निकट कड़ा ग्राम में हुआ था। यह कड़ा ग्राम 51 शक्तिपीठों में एक शक्तिपीठ भी है।
जहॉ भगवती माता सती का कड़ा गिरा था और शीतला माता का सिद्ध पीठ है।
संत श्री मलूकदास जी का आविरभाव उसी कड़ा ग्राम में संवत् 1631 में वैशाख कृष्ण पंचमी को गुरुवार के दिन मध्यान्ह अविजित मुहुर्त में हुआ।
सनातन धर्म को मानने वाला शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसने श्री मलूक दास जी केे ये दो दोहे न सुनेे हों
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम
दास मलूका यों कहे, सबके दाता राम।।
राम झरोखा बैठकर, सबका मुजरा लेय
जाकी जैसी चाकरी, वाको वैसोई देय।।
मलूक दास जी मुगलों के समय के हैं:-
श्री मलूक दास जी महाराज ने चार मुगल बादशाहों का काल देखा। 30 वर्ष अकबर का राज्य काल देखा।
इसके पश्चात् जहॉगीर का राज्य काल देखा। इसके पश्चात् शाहजहॉ का राज्यकाल देखा और औरंगजेब के राज्य के काल के 26 वें वर्ष में उन्होंने महाप्रयाण किया।
शाहजहॉ के काल में ही संवत् 1700 के आसपास श्री मलूक दास जी ने मलूक पीठ की स्थापना की थी। वैष्णव चतुष्सम्प्रदायों में 52 द्वाराचार्य पीठ हैं, जिनमें से 22वें नंबर का यह पीठ है।
मलूक दास जी कितने वर्ष तक जीवित रहे:-
संवत् 1631 में वैशाख कृष्ण पंचमी को मलूक दास जी का आविर्भाव है और संवत् 1739 में 108 वर्ष की आयु पूर्ण करके वैशाख कृष्ण पंचमी को भी उनका तिरोभाव है।
मलूक पीठ कहॉ स्थित है (Malook Peeth Address) :-
श्री मलूक पीठ एक बहुत ही विशाल भक्ति सनातन धर्म संगठन है। जो वर्तमान में परम पूज्य मलूक पीठाधीश्वर श्री राजेन्द्र दास जी महाराज (Rajendra Das Ji Maharaj) के नेतृत्व में है।
श्री मलूक पीठ वर्तमान में बंटीवट मोहल्ला में जमुना पुलेन के पास स्थित है। जो पहले मलूक दास जी अखाड़ा के नाम से जाना जाता था।
मलूक दास जी अखाड़ा में बाबा मलूक दास उस जमाने में लगभग 2500 संतों के साथ निवास करते थे, जिनका काम ठाकुर जी सेवा और साधु संत सेवा करना होता था और सभी भक्ति संगीत तथा भजन सीखा करते थे।
वर्तमान में श्री मलूक पीठ में ठाकुर भगवान सेवा, साधु संत सेवा, गुरुकुल, छात्र शिक्षा, गरीब लोगों, भक्तों व संतो के लिए भोजन और चिकित्सा उपचार जैसी धार्मिक गतिविधियों का संचालन किया जाता है।
इसके साथ ही छात्रों और भक्तों के लिए हारमोनियम, तबला, सितार व वीणा आदि भारतीय पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्र सीखने और भक्ति भजन सीखने का एक उचित संस्थान भी है।
अपने सच्चे स्व को जानना ही दीक्षा की खोज का लक्ष्य है। यह आध्यात्मिक साधना ईश्वर प्राप्ति के लिए सबसे आसान और सर्वोत्तम तरीका है।
इसलिए दीक्षा संस्कार समय-समय पर श्री मलूक पीठ में आयोजित किया जाता है।
श्री राजेन्द्र दास देवाचार्य जी महाराज आध्यात्मिक वैष्णव जीवन में विकसित होने के इच्छुक भक्तों को दीक्षा देते हैं।
श्री मलूक पीठ में पढ़ने वाले शिष्यों का उपनयन संस्कार आवश्यक होता है इसलिए श्री मलूक पीठ में समय-समय पर उपनयन संस्कार आयोजित किये जाते हैं।
उपनयन संस्कार पारंपरिक संस्कारों में से एक है। जो एक गुरु द्वरा एक शिष्य की स्वीकृति और सनातन धर्म के एक स्कूल में एक व्यक्ति के प्रवेश को चिन्हित करता है।
Rajendra Das Ji Maharaj wikipedia:-
Email- info@malookpeeth.com Contact no- 91+ 7900380003 8955611382 Website- www.malookpeeth.com Youtube- Shri Rajendra Das ji Maharaj Malook Peeth Official Address- Shree Malook Peeth Ashram, Bansiwat near Sudama Kuti, Parikrama Marg, Vrindavan, Mathura UP- 281121
मलूक पीठ गौशाला (Rajendra Das Ji Maharaj Gaushala):-
मलूक पीठ गौशाला, चार सम्प्रदाय आश्रम रोड़ पर श्री मलूक पीठ मंदिर से लगभग एक किमी दूरी पर स्थित है।
इस गौशाला में बहुत सारी भारतीय वैदिक गायें हैं, जिनकी देखभाल श्री मलूक पीठ संगठन द्वारा की जाती है।
गौशाला में गायों द्वारा उत्पादित दूध व दूध से बने घी, दही, छाछ इत्यादि भगवान सेवा के लिए और संतों व भक्तों के लिए प्रसाद के रूप में उपयोग किया जाता है।
गौशाला में रहने वाली गायों के लिए प्रतिदिन हरा चारा, दलिया, गुड़, चौकर आदि की समुचित व नियमित रूप से व्यवस्था की जाती है।
किसी भी रोग से पीडित गायों के लिए चिकित्सा की भी व्यवस्था गौशाला के ही अंदर है, जिससे सभी गायों को समुचित उपचार मिल सके।
एक गौशाला राजस्थान में भी है:-
पूज्य राजेन्द्र दास जी महाराज (Rajendra Das Ji Maharaj) ने राजस्थान के भरतपुर जिले में श्री ब्रज कामद सुरभि वन एवं शोध संस्थान (जड़खोर गोधाम) की स्थापना की है।
यह वही स्थान है, जहॉ भगवान श्री कृष्ण अपने भाई बलराम और अपने बाल सखाओं के साथ गायें चराने आते थे।
जड़खोर गोधाम में वर्तमान में दस हजार से अधिक गायें सुरक्षित और आरामदायक वातावरण में रह रही हैं।
इनमें से अधिकतर तो बूढ़ी गायें हैं, जिन्हें कसाइयों और बूचड़खानों से बचाया गया है।
Katha Star के प्रिय पाठकों यदि आपने राजेंद्र दास जी महाराज की कथायें सुनी होगी तो आप जानते होंगे
कि महाराज जी लगभग अपनी हर कथा में गाय माता की सेवा और उनकी रक्षा करने के लिए समाज को प्रेरित करते रहते हैं और सभी हिन्दुओं को एक-एक गाय अपने घर में पालने की सलाह देते हैं।
जड़खोर गोधाम का मिशन:-
वैदिक भारतीय गाय का संरक्षण, संवर्धन और सेवा।
वैदिक गायों और उनके उत्पादों के लाभों के अध्ययन और वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देना।
जड़खोर गोधाम का उद्देश्य:-
- स्वस्थ जीवन को बढ़ावा देना।
- भारतीय गाय आधारित खेती और कृषि पद्धति को बढ़ावा देना।
- भारतीय देशी गायों की सेवा व उनकी रक्षा को बढ़ावा देना।
- गोमूत्र और गोबर को बढ़ावा देना, क्योंकि यह वातावरण को स्वच्छ बनाता है।
- गौरक्षा के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को रोजगार उपलब्ध कराना।
- सनातन संस्कृति की रक्षा करना।
JADKHOR GAUSHALA CONTACT NUMBER:-
Jadkhor Daya Pahalwad, P.O. Gohana, Tehsil Deeg, Bharatpur, Rajasthan- 321203
Phone Number- 9548711477
Whatsapp- 8955611382
शास्त्रों में यह कहा गया है कि जो लोग नियमित रूप से श्रीमद् भागवत का श्रवण लाभ लेते हैं और भाव से कथा सुनते हैं, उनके अंतर आत्मा में भगवान श्री कृष्ण बहुत जल्दी ही प्रकट हो जाते हैं।
मलूक पीठाधीश्वर श्री जगद्गुरु द्वाराचार्य स्वामी श्री राजेन्द्र दास जी महाराज श्रीमद् भागवत, श्री रामचरितमानस, रामायण व भक्तमाल आदि
जैसे विभिन्न पवित्र ग्रंथों पर कथा सुनाने के लिए नियमित रूप से देश भर में यात्रा करते हैं और कथा कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं।
- श्याम सुदंर पाराशर जी की जीवनी
- भजन गायिका पूनम दीदी का जीवन परिचय
- भजन सम्राट विनोद अग्रवाल जी का जीवन परिचय
- जया किशोरी जी का जीवन परिचय
- देवरहा बाबा के चमत्कार
अन्त में-
मुझे विश्वास है कि आपको राजेंद्र दास जी महाराज का जीवन परिचय पसंद आया होगा और उनसे जुडें सभी प्रश्नों का उत्तर मिल गया होगा।
वैसे तो मैंने हर वो जानकारी जुटाने की कोशिश की है, जो आपके मन में प्रश्न के रूप में प्रकट होती है,
उसको बहुत ही सरल शब्दों में बताने की कोशिश किया है ।
और कथा स्टार के माध्यम से जो भी जानकारी आपको दी जाती है, वह बहुत ही विश्वासनीय सूत्रों से प्राप्त कर और काफी रिसर्च करने के बाद आप तक पहुंचाई जाती है।
इसलिए इस लेख में दी गयी जानकारी पर आप ज्यादा से ज्यादा भरोसा जता सकते हैं, ऐसा मेरा विश्वास है।
यदि आपको मेरा यह प्रयास पंसद आ रहा हो तो हमें कमेंट करके जरूर बतायें हम आपके कमेंट का इतंजार करते है।
Rajendra Das Ji Maharaj Biography पढनें के लिये आपका धन्यवाद।
JAI JAI RAM SWAMI JI SADAR PRANAM